रात जब मैं सोता, तो यह सोच कर कि सुबह मेरा पार्थिव शरीर बिस्तर पर पड़ा होगा और मैं अपनी देह से आज़ाद हुआ रहूंगा। मुझे हमेशा महसूस होता जैसे दूर क्षितिज-कोर से सफेद लिबास में कोई उड़ता हुआ आया और बांहों से पकड़ खींचने लगा। कुछ दूरागत प्रतिध्वनियां भी अक्सर मुझे सुनाई देतीं। सुबह जब नींद खुलती तो मुझे देर तक अहसास होता जैसे कि मैं इस दुनिया में नहीं, किसी और दुनिया में हूं। मैं अपने हाथ-पांव टटोल के देखता, नाक पर हथेली रख सांस की गति को परखने की कोशिश करता, सांसों के आरोह-अवरोह और देह के स्पंदन से ही महसूस होता कि नहीं, अभी मैं हूं.... जीवित हूं.... फिर भी कहूं कि मैं मृत्यु के पदचाप लगातार सुन पा रहा था।
इस तरह मेरी तीन या चार रातें ऐसी गुज़रीं जब मैं ये सोच कर सोया कि सुबह मैं आंखें नहीं खोल पाऊंगा। निद्रा या शायद स्वप्न में मुझे दूर कहीं एक नीली-सफ़ेद आभा-सी दिखाई देती.... एक गुफा-द्वार.... उसमें सिमटती कुछ बेरंग परछाइयां.... और उसके दूसरे सिरे पर एक चमकीली नीलाभ रोशनी जैसे छिटकती हुई छपाक से गुज़र जाती। इस सबके बीच एक पल तो ऐसा भी आया जैसे मृत्यु मेरे पास से होकर, मुझे छू कर लौट गई थी। रात में अचानक नींद खुल गई। मैं बहुत बेचैनी अनुभव कर रहा था। मैंने ‘ऑक्सीमीटर’ को अपनी उंगली में लगाया। मैंने साफ़-साफ़ देखा कि ऑक्सीजन का लेवल और पल्स दोनों नीचे की तरफ आ रहे हैं.... मैं लगभग स्क्रीन पर देख पा रहा था- 99.... 76.... 45.... 22.... 10.... 0.... और झपाक से सारी बत्तियां बुझ गईं.... घुप्प अंधेरा....। मुझे लगा कि मैं मुक्त हो गया.... बस अब अपनी देह से निकलने वाला हूं.... यह सब शायद एक पलांश या उसके भी हज़ारवें-लाखवें हिस्से में हुआ होगा....। मैं शायद प्रसन्न था कि तभी ऑक्सीमीटर पर नंबर चमके-.... 0...... 43... 70.... 96.... 99.... और झप्प से मेरी आंखें खुल गईं.... मेरी पूरी देह पसीने से तरबतर थी। मुझे लगा कि मृत्यु ने मुझे अस्वीकार कर दिया है। हो सकता है, विधि या नियति ने मेरे लिए कुछ और काम सोच रखा हो और जिसे पूरा किए बिना मेरी मुक्ति नहीं है।